EWS से लेकर तीन तलाक तक- 74 दिनों के छोटे सफर में कई बड़े फैसले सुनाने वाले चीफ जस्टिस ललित की कहानी

 

अमन पांडे

नई दिल्ली। सफर छोटा हो मगर उसका यादगार होना बेहद जरूरी है क्योंकि इंसान के जाने के बाद उसकी यादें और उसकी बातें ही गवाह बनती है उसकी शख्सियत को पहचान दिलाने की। कुछ ऐसा ही है 74 दिनों तक सीजेआई यानी प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रहे उदय उमेश ललित की कहानी। यह कहानी शुरू होती है जून, 1983 से जब ललित वकील हुआ करते थे और फिर इसके दो साल बाद ही यानि दिसंबर 1985 तक बंबई उच्च न्यायालय में वकालत की। वह जनवरी 1986 में दिल्ली आकर वकालत करने लगे और अप्रैल 2004 में उन्हें शीर्ष अदालत द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता नामित किया गया। जबकि उनकी वकालत की पढ़ाई शुरू हुई थी मुंबई के गवर्नमेंट कॉलेज से।

शुरुवात भी हुई तो जबरदस्त दबंग खान के वकील के रूप में। सलमान खान के काले हिरण मामले में ललित उनके वकील रहे। इसके साथ ही 2004 में वह सीनियर वकील बने और फिर उन्हें 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में सुनवाई के लिए केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) का विशेष लोक अभियोजक नियुक्त किया गया था। 13 अगस्त 2014 को वे सिटिंग जज बने। वैसे तो इनके बारे में कहा जाता है कि यह बहुमुखी है लेकिन इनका स्पेशलाइजेशन क्रिमिनल लॉ है।

न्यायमूर्ति ललित देश के दूसरे ऐसे प्रधान न्यायाधीश हैं, जो बार से सीधे सुप्रीम कोर्ट की पीठ में पदोन्नत हुए। उनसे पहले न्यायमूर्ति एस. एम. सीकरी मार्च 1964 में शीर्ष अदालत की पीठ में सीधे पदोन्नत होने वाले पहले वकील थे। वह जनवरी 1971 में 13वें सीजेआई बने थे। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं।

उदय उमेश ललित ने अपने फैसले से कई बार चौकया भी तो कई बार लोगों को सोचने पर मजबूर किया। सिर्फ 74 दिनों के कार्यकाल में 10,000 से अधिक केस पर फैसला जबकि 13000 से अधिक केसों को ख़ारिज करना बताता है कि ललित किसी शताब्दी एक्सप्रेस पर सवार फ़ैसले सुनाते चले गए। आज उनकी बात इसलिए भी हो रही है क्योंकि आज उनका एक सीजेआई के रूप में अंतिम दिन है और यह महज इतेफाक ही है कि आज उनका जन्मदिन भी है। 9 नवम्बर1957 को जन्मे ललित अपने कई फैसलों के लिए याद रखे जाएंगे।

ये कुछ यादगार और महत्वपूर्ण फैसले

1. गुजरात दंगो के सभी केस बन्द

पीएम मोदी के मुख्यमंत्री कार्यकाल का सबसे बदनुमा धब्बा जिसका निपटारा करने का काम सीजेआई ललित ने किया था। 2002 में हुए गुजरात दंगों की सभी केस 30 अगस्त को बन्द कर दिया। कोर्ट में साफ कहा गया कि अब गुजरात दंगों में कोई भी सुनवाई करना समय की बर्बादी है क्योंकि सारा कुछ घटित हो चुका है।

2. छावला गैंगरेप के सभी दोषी

2012 दिल्ली में छावला गैंगरेप केस के सभी दोषियों को बरी करने का 7 नवंबर को आदेश देकर ललित ने अपनी बातों को काफी गंभीरता से रखा था हालांकि इस फैसले पर उनकी सोशल मीडिया पर खूब किरकिरी भी हुई लेकिन उनका साफ कहना था कि किसी की भावनाओं को देखकर सज़ा नहीं दी जा सकती है। हम पीड़ित परिवार की भावनाओं को समझ रहे हैं लेकिन अदालत सिर्फ सबूतों का मोहताज होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि निचली अदालत ने इस मामले में तीन दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई थी।

3. EWS पर नहीं मिल पाए विचार
बात जब जेनेरल कैटगरी में आरक्षण की आई तो उसमें न्यायमूर्ति ललित का विचार नहीं मिल पाया। हालांकि जिस 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने इस बारे में फैसला सुनाया था उसकी अध्यक्षता ललित ही कर रहे थे लेकिन 3 जजों ने EWS रिजर्वेशन को सही ठहराया जिसमें जस्टिस बेला त्रिवेदी, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस जेबी पारदीवाला का नाम शामिल है जबकि CJI ललित और जस्टिस रवींद्र भट्ट ने EWS रिजर्वेशन को सही नहीं माना। हालांकि, 3 जजों के सही ठहराने की वजह से देश में EWS रिजर्वेशन लागू हो पाया।

4. तीन तलाक की व्यवस्था को रद्द की

न्यायमूर्ति ललित के बड़े फैसलों में तलाक-ए-बिद्दत यानी एक साथ तीन तलाक बोलने की व्‍यवस्‍था को खत्म करने के फैसले में इनका महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिस संवैधानिक बेंच ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया था उन पांच जजों की बेंच के ललित हिस्‍सा रहे। जस्टिस रोहिंटन नरीमन के साथ लिखे अपने फैसले में उन्‍होंने कहा था कि इस्‍लाम में भी एक साथ तीन तलाक गलत है। पुरुषों को हासिल एक साथ तीन तलाक बोलने का हक महिलाओं को गैर बराबरी की स्थिति में लाता है। यह महिलओं के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है।

5. भगोड़े विजय माल्या पर भी कसा शिकंजा

ऐसा लगता है मानो न्यायमूर्ति ललित सिर्फ 74 दिनों के लिए आए ही थे ताकि देश के जितने हाई प्रोफाइल केस है, सब पर एक साथ फैसला सुना दिया जाए। अवमानना के मामले में उन्होंने भगोड़े विजय माल्या को चार महीने जेल की सज़ा सुनाई। इसके साथ ही माल्या पर दो हज़ार रुपये का जुर्माना यह कहकर लगाया गया कि अगर माल्या जुर्माना नहीं चुकाते हैं तो उन्हें दो महीनें अतिरिक्त जेल काटना होगा।

6. अयोध्या मामले में भी नहीं बन पाई बात

अयोध्या मामला न्यायमूर्ति ललित की सुर्खियों में आने की वजह है। 10 जनवरी 2019 को जब अयोध्या मामले में पांच बेंचों की जजों द्वारा सुनवाई चल रही थी तो उन्होंने उस बेंच से खुद को अलग कर लिया। इसके पीछे का तर्क भी काफी तर्कसंगत लगा जब उन्होंने कहा था कि दो दशक पूर्व वह अयोध्‍या विवाद से जुड़े एक आपराधिक मामले में यूपी के पूर्व मुख्‍यमंत्री कल्‍याण सिंह के लिए एक वकील के रूप में पेश हो चुके हैं। इस मामले को लेकर वह काफी चर्चा में रहे थे।

7.एससी एसटी एक्ट पर मुखर होकर लिया फैसला

एससी एसटी एक्ट जो कि अनुसूचित जाति जनजाति को एक विशेष अधिकार देता है और इसका दुरुपयोग भी कई बार होते हुए देखा गया। इसके तहत शिकायत के बाद तुरंत गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया जाता है, जिस पर न्यायमूर्ति ललित सहमत नहीं थे और उन्होंने फैसला सुनाते हुए कहा कि अब अगर किसी भी प्रकार की शिकायत आती है तो पहले शुरुआती जांच की जाएगी उसके बाद ही आरोपी को गिरफ्तार किया जाएगा। हालांकि, इस फैसले के बाद केंद्र सरकार ने इस कानून में बदलाव कर तुरंत गिरफ्तारी के प्रावधान को दोबारा बहाल कर दिया था।

8. लाल किले पर हुए हमला के संबंध में सुनाया फैसला

प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी मोहम्मद आरिफ उर्फ अशफाक को फांसी देने का मार्ग प्रशस्त किया और वर्ष 2000 में लालकिले पर हुए हमले के मामले में मौत की सजा देने के फैसले की समीक्षा करने की उसकी याचिका को खारिज कर दिया। इस हमले में सेना के तीन जवान शहीद हो गए थे।

ऐसा नहीं है कि न्यायमूर्ति ललित के कार्यकाल में उनके फैसले से सभी खुश रहे बल्कि दो ऐसे कंट्रवर्सी भी हुए जिससे उनके साथी जज नाराज भी हुए। यूयू ललित का मानना था कि भारत में केसों की पेंडिंग होने की संख्या काफी है इसलिए इसका निपटारा जरुरी है और यही कारण है कि उन्होंने एक नियम लागू किया जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट के सभी 30 जजों के लिए दो शिफ्ट बना दी गई और साथ ही कहा गया कि सोमवार से शुक्रवार तक नए-नए मामलों की सुनवाई होगी जिसके लिए 15 अलग-अलग पीठ बैठेंगे और प्रत्येक दिन 60 केसों की सुनवाई की जाएगी।

इस फैसले के बाद उनके ही साथी जज संजय किशन कौल और अभय एस ओका असहमति जता दी। उनका कहना था कि दोपहर के सेशन में केस की भरमार हो जाती है और फैसला लेने के लिए समय नहीं मिल पाता है। जबकि जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने कहा कि उन्हें रातभर जागकर फैसला लिखना पड़ा है।

अधूरी रह गई इच्छा

प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाले कॉलेजियम में खुब बवाल हुआ जिसके तहत अन्य जजों का मानना था कि सलाह लेने की जगह फिजिकल मिटींग हो और फिर फैसला लिया जाए जबकि न्यायमूर्ति ललित इससे सहमत नहीं थे। हालांकि, विभिन्न उच्च न्यायालयों में लगभग 20 न्यायाधीशों के नामों की सिफारिश की और इसके अलावा बंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता को शीर्ष अदालत के न्यायाधीश के रूप में नामित करने की सिफारिश भी की लेकिन ये सारी सिफारिशे अधूरी रह गई।

अमन पांडेय

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